جواہر لال نہرو
आख़िर वही हुआ जिसका धड़का लगा हुआ था। जवाहरलाल नेहरू
की ज़िंदगी का चिराग गुल हो गया। सिर्फ उनकी ज़िंदगी का चिराग गुल नहीं हुआ,
हिंदुस्तान में अंधेरा हो गया। एशिया की रोशनी जाती रही. दुनिया पर ग़म के बादल छा
गये। हिंदुस्तान का यह मेहबूब रहनुमा सिर्फ़ हिंदुस्तान रहनुमा नहीं था, वह सारी
दुनिया का रहनुमा था. उसने महात्मा गांधी की रहनुमाई में सिर्फ़ हिंदुस्तान को
आज़ाद नहीं कराया, कितने ही गुलाम मुल्कों में आज़ादी की तड़प हैदा की। उसने
हिंदुस्तान की आज़ादी की लडाई इस तरह कामियाबी से लड़ी कि दोस्त दुश्मन सब के सर
एहतराम[1]
में झुक गया। वह हिंदुस्तानी था, वह मशरिकी[2]
था, वह मग़रिबी[3]
था, वह आलमी[4]
ज़हन[5]
रखता था। उसमें मुतज़ाद[6]
अनासिर[7]
इस तरह जमाअ हो गये थे कि इंसान की एक मिसाली[8]
तसवीर नज़र आ गई थी।
इस अज़िमुश्शान[9]
मुल्क में, जहाँ पेंतालीस करोड़ इंसान बसते हैं, एक जवाहरलाल ऐसा था, जो सब की
ज़बान समझता था, सब के दर्द से आशना[10]
था. जिसके यहाँ मज़हब, ज़बान, इलाके, अकीदे[11]
का फ़र्क कोई मायना नहीं रखता था, जिसे हिंदुस्तान की पूरी तारिख़ से मुहोब्बत थी.
जो सब का था और सब के लिए था। हिंदुस्तान में बड़े फ़ातेह[12],
मुदब्बिर[13],
दानिशवर[14],
अदीब[15]
और शायर गुज़रे हैं, मगर ऐसा जामे-हैसियात[16]
आदमी हमारी सरज़मीन से कोई नहीं उठा जो बा-एक-वक़्त[17]
जंगे आज़ादी का सूरमा[18]
और आज़ादी के बाद कोम का मेमारे-आज़म[19],
अदीब, मुवर्रिख़[20],
दानिशवर, मुदब्बिर, ख़्वाबों का पुजारी और अमल का मर्दे-मैदान[21]
हो.
जवाहरलाल नेहरू तो चले गये। उनका जिस्मे-खाकी[22]
शोलों की नज्र[23]
हो गया। उनकी राख भी आज कुछ हिंदुस्तान के मुख्तलिफ[24]
दर्याओं में बहा दी जायेगी ताकि उसके ज़र्रे हिंदुस्तान के खेतों पर बरसें और नई
फसल और नई बहार का वसीला[25]
वनें। उनका वह हस्ता हुआ चेहरा, यूं आंखों में बसा रहेगा। मगर वह तो होंगे। शख़्स
तो चला गया। हाँ – उसकी
शख़्सियत की अज़मत, ख्वाबों की गरमी, मिज़ाज की नरमी याद आती रहेगी। मगर जवाहरलाल
नेहरू हमें क्या कुछ नहीं दे गये। देखिये उंहोने अपने मुताअलुक क्या कहा थाः
“यह वह आदमी था जिसने दिलो जान से हिंदुस्तान
से और हिंदुस्तान के आवाम से मुहोब्बत की और इसके बदले में उन्हों ने भी उस पर
बड़ी महरबानी की और फ़य्याज़ी[26]
से उसे अपनी मुहोब्बत दी।”
एक और जगह कहा थाः
“इस वक़्त काम करने की ज़रूरत है, इस मेहनत करने की ज़रूरत
है, इन सारी कुव्वतों को एकजा करने की ज़रूरत है जो कोम में हैं। हम क्या कर रहे
हैं ? हम आगे
बढ़ रहे हैं और तरक्की कर रहे हैं। फिर भी जब मैं अपने गिर्दो-पेश[27]
नज़र डालता हूँ तो काम का माहोल नहीं देखता। सिर्फ बातें, तंकीद[28],
छोटी छोटी टोलियां और एसेही दूसरी बातें हैं। अपनी उमर का ख़याल करके, मुझे थोडिसी
बेचैनी होती है, क्योंकि शायद चंद साल ही और जी सकूं, और मेरी तन्हा आरज़ू यह है
कि अपनी जिंदगी के ख़त्मे तक मैं ज़्यादा से ज़्यादा मेहनत से काम करूं और जब मैं
अपना का कर चुकूं तो फिर मेरी मुताअलुक फिकर करने की कोई ज़रूरत नहीं।”
यानी जवाहरलाल जाते जाते ज़िंदगी की वह खुली किताब दे
गये हैं, जिसे हर शख़्स पढ़ सकता है और जिससे अपने लिए बहुत कुछ ले सकता है।
उन्होंने अपने आपको हिंदुस्तान की और इंसानियत की खिदमत के लिए लुटा दिया। लुटा
दिया और ठिकाने लगा दिया।
क्या जवाहरलाल नेहरू वाकेई मर गये?
नहीं, हरगिज़ नहीं। उनका जिस्मेखाकी ज़रूर शोलों की नज़्र हो गया। वह जिस्मानी तोर
पर हमारे दरमियान नहीं हैं, मगर कश्मीर से कावेरी तक और आसाम से काठियावाड तक इस
ज़मीन के चप्पे चप्पे पर उनके कदमों के
निशान हैं, इसकी फ़िज़ा[29]
में उनकी आवाज़ गुंज रही है। तक़रीबन पचास बरस तक हिंदुस्तान की जिंदगी के हर मोड़ में वह शरीक[30]
रहे। आज हम जो कुछ हैं, उन्हींकी वजे से हैं। वह जिंदा है और जिंदा रहेंगे।
हिंदुस्तान को और ऊंचा ले जाने के उनके ख़्वाब जिंदा रहेंगे। जम्हुरियत[31]
और गैर मज़हबी रियासत[32]
के इस्तिहकाम[33]
के लिए हमारी कोशिश हमें उनकी याद दिलायेगी। सोश्यलिज़म की तरफ हर कदम में उनकी
ललकार हम सुनते रहेंगे। मुश्तरक[34]
तहज़ीब[35]
से वफादारी के लिए हमें हर वक़्त उनकी मिसाल को सामने रखना होगा।
जवाहरलाल नेहरू ने एक इंटरव्यू में हाल में कहा थाः
“सच्ची बात तो यह है कि में किसी इंसान
को नापसंद नहीं करता।”
आईये हम भी अहद करें कि हम इंसान से हर हाल में, हर रंग
में, हर रूप में और हर सूरत में महोब्बत करेंगे। महोब्बत करने वाले को मुहोब्बत
मिलती है और नफ़रत करने वाले को नफ़रत।
आले अहमद सुरूर – 1 जून,
1964 – हमारी ज़बान साप्ताहिक का एक
संपादकीय आलेख।