इत्तफाकاتّفاق
सर सय्यद अहमद खाँسر سیّد احمد خاں
सर सय्यद अहमद खाँ – सं 1817 से 1898 – मुल्क के मुख़लिस[1] कोमी रहनुमा[2], समाजी मुसले[3], उर्दु के नामोर अदीब[4] और इन्सा-परवाज़[5] थे। इन्हों ने कोमी, मज़हबी, और मुआशर्ती[6] इसलाह[7] और तालीमी बीदारी[8] के लिए तहज़ीबुल-इखलाक़ नामी रिसाला[9] जारी किया था। वह मुश्किल से मुश्किल खियालात को निहायत सादा, आम फहम[10] और दिलनशीं[11] अंदाज़ में बयान करते थे। इस बिना[12] पर इन्हें जदीद नसर[13] का बानी[14] कहा जाता है। आसारुल-सन्नादीद, असबाबे-बघावते-हिंद[15] और खुतबाते-अहमद[16] यह इन की मशहूर तसानीफ़[17] हैं। इन मुज़ामीन[18] मुकालाते सर सय्यद[19] के नाम से कई जिल्दों[20] में शाए[21] हो चुके हैं। यह मज़मून[22] मुकालाते सर सय्यद हिस्सा दवाज़दधम[23] से माखूज़[24] है। दर असल यह सर सय्यद अहमद खाँ की एक तकरीर[25] है जो इन्हों ने मदरसा उआलूम की ज़रूरत के अन्वान[26] पर 27, जंवरी 1883
को की थी।
ज़ेल के इक्तबास[27] से पता चलता है कि सर सय्यद एक मुख़लिस मुहिबे वतन[28] थे और उन्हों ने उमर भर हिंदू-मुस्लीम इतेहाद[29] व एकझूती के लिए कोशिश की।
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एक हकीम का कौल[30] है कि इन्सान आप अपने लिए सब से बड़ा उस्ताद है। दुनिया के तमाम वकिआत इस पर गुज़रते हैं और इन के असरों से जैसा वह वाक़िफ़ होता है दूसरा कोई नहीं वाक़िफ़ होता और इन से इस को इबरत[31] पकड़ ने का सब से ज्यादा मौका होता है।
यह एक ग़लती होगी अगर कोई समझे कि इन्सान का इतलाक[32] सिर्फ वाहिद[33] पर ही होता है। यह एक इस्तिलाह[34] है और जिस तरह शख्से-वाहिद पर सादिक[35] आती है इसी तरह मजमुआ अफराद पर भी सादिक आती है। पस जो लोग कि अपने मुल्क में तमाम बाशिंदगान[36] की भलाई पर नज़र रखते हैं वह इस मुल्क के कुल बाशिंदों पर इन्सान का लफ़्ज़ इतलाक कर सकते हैं।
मुल्क पर जब हम इन्सान का लफ्ज़ इतलाक करें तो हम को मालूम होगा कि जिस तरह इन्सान में मुख़तलिफ़[37] कुवा[38] और मुख़तलिफ़ अज़ा[39] हैं जिन पर इन्सान की ज़िन्दगी का मदार[40] है, इसी तरह मुल्क में भी मुख़्तलिफ़ कोमें और मुख़तलिफ़ अशख़ास[41] हैं जिन पर मुल्क की सरसबज़ी और तरक्की और भलाई का बल्कि मुख़्तसर तोर पर कहूं कि मुल्क की ज़िंदगी का मदार है। पस[42] जो लोग कि मुल्क की भलाई चाहते हैं, उन का पहाला फर्ज़ यह है कि बिला-लिहाज़[43] कौम और मज़हब के कुल बाशिंदगाने-मुल्क की भलाई पर कोशिश करें क्योंकि जिस तरह एक इंसान की, इस के तमाम कुवा और अज़ा के सही व सोलिम[44] रहते बगैर, जिन्दगी या पुरी तन्दुरस्ती महाल[45] है, इसी तरह मुल्क के तमाम बाशिन्दों की खुशहाली और बहुबुदी[46], बगैर मुल्क की ज़िन्दगी या पुरी कौम के, नामुमकिन है।
हिंदुस्तान में दो मशहूर कोमें आबाद हैं जो हिंदू और मुसलसान के नाम से मशहूर हैं। जिस तरह कि इन्सान में बाज़[47] अज़ा-ए-रईसा[48] हैं, इसी तरह हिंदुस्तान के लिए यही दोनों कोमें बामंज़िला[49] अज़ा-ए-रईसा के हैं। हिंदु होना या मुसलमान इन्सान का अन्दरूनी खयाल या अक़ीदा है जिस को बैरोनी[50] मुआमलात और आपस के बरताओ से कोई ताअलुक नहीं है। क्या खूब कहा है जिस ने कहा है कि इन्सान के दो हिस्से हैं। इसके दिल का खयाल या अकीदा[51] खुदा का हिस्सा है और इसका अख्लाक़[52] और मीलजूल और दूसरे की हमदर्दी इसके अबना-ए-जिन्स[53] का हिस्सा है। पस खुदा के हिस्से को खुदा पर छोड़ दो और जो तुम्हारा हिस्सा है इस से मतलब रखो।
जिस तरह हिंदुस्तान की शरीफ़ कोमें इस मुल्क में आयी, इसी तरह हम भी इस मुल्क में आए। हिंदू अपना मुल्क भूल गएं, अपने देश से परदेश होने का ज़माना उन को याद नहीं रहा और हिंदुस्तान ही को उन्हों ने अपना वतन समझा और यह जाना कि हिमालिया और बिंधि्याचन के दरमियान हमारा ही वतन हैं। हम को भी अपना मुल्क छोड़े सेकड़ों बरस हो गए। न वहां की आबो हवा याद है, न उस मुल्क की फ़िज़ा की खूबसूरती, न वहां के फलों की तरोताज़गी और न मेवाओं की लिज्ज़त और न अपने मकद्दस[54] रेतीले और कंकरीले मुल्क की बरकत[55]। हम ने भी हिंदुस्तान को अपना वतन समझा और अपने से पेश-कदमों[56] की तरह हम भी इस मुल्क में रह पड़े। पस अब हिंदुस्तान हम दोनो का वतन है। हिंदुस्तान ही की हवा से हम दोनों जीते हैं। मुक्कदस गंगा-जमना का पानी हम दोनों पीते हैं। हिंदुस्तान ही की ज़मीन की पैदावार हम दोनों खाते हैं। मरने में, जीने में दोनों का साथ है। हिंदुस्तान में रहते रहते दोनों का खून बदल गया। दोनों की रंगते एक सी हो गई। दोनों की सूरतें बदल कर एक दूसरे के मशाबा[57] हो गयीं। मुसलमानों ने हिंदुओं की सेकड़ो रसमें अख़तियार[58] कर लिएं। हिंदू ने मुसलमान को सेकड़ो आदतें ले ली। यहां तक हम दोनों आपस में मिल कर एक नई ज़बान उर्दू पैदा कर ली जो न हमारी ज़बाल थी न उन की।
दर-हकीकत हिंदुस्तान में हम दोंनों बा-एतबार[59]
अहले[60]
वतन होने के, एक कौम हैं और हम दोनों के इतफाक और बाहमी[61]
हमदर्दी और आपस की मोहब्बत से मुल्क की और हम दोनों की तरक्की व बहबुद्दी मुमकिन
है और आपस के नफाक[62]
और ज़िद व अदावत[63]
और एक दूसरे की बद-ख्वाही[64]
से हम दोनों बरबाद हो ने वाले हैं। अफसोस है इन लोगों पर जो इस नुक्ते[65]
को नहीं समझते और आपस में इन दोनों कोमों के तफ्रिका[66]
डालने के खियालात पैदा करते हैं और यह नहीं समजते कि इस मुज़रत[67]
और नुकसान में वह खूद भी शामिल है और आप अपने पाओं पर कुल्हाड़ी मारते हैं।
ए मेरे दोस्तों! मैंने बारहा कहा है और फिर कहता हूं कि हिंदुस्तान एक दुल्हन की मानिन्द[68]
है जिस की खूबसूरत और रसीली आंखे हिंदू व मुसलमान हैं। अगर वह भिंगी[69]
हो जोवेगी और अगर एक दूसरे को बरबाद करेंगे तो वह कान्नड़ी[70]
बन जावेगी। पस ए! हिंदुस्तान के रहने वाले मुसलमानों! अब तुम को अख़तियार है कि चोहो इस दुलहन हो भिंगा बनाओ चोहो
कान्नड़ा।
मेरा अपना विचारः नामोर अदीब इस नुक्ते को न समजे कि कौम और मजहब को अलग अलग
रखा जाता तो मजहब के नाम की नफाक, बदख्वाही कुछ कम होती. यह कह कर कि सारी की सारी
कौम सरहद पार मकद्दस रेतीले और कंकरीले मुल्क
से आई है उन्हों ने ही चाहे न चाहे पाकिस्तान की बुनियाद बना डाली. कौम जिसको हम कहेते हैं उसको सिर्फ पंजाबी,
राजस्थानी, गुजराती, बेगाली वगैरे के लफ्ज़ का इतलाक होना चाहिये था, मज़हब का
नहीं.
[70] कान्नड़ी - one eyedکانّڑی
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