शनिवार, 14 जून 2014

प्रेमचंद की आपबीती

پریم چند کی آپ بیتی
प्रेमचंद की आपबीती

प्रेमचंद (1880 से 1936) उर्दू अफसाना निगारी में बहुत बुलंद मकाम[1] रखते हैं। इन के कई मजमुएँ[2] और नॉवेल मशहूर हैं।

प्रेमचंद ने अपनी ज़िंदगी के बारे में मुखतलीफ मकामात[3] पर रोशनी डाली है। अगर इन वाकियात को एकजा कर दिया जाए तो इन की आप-बितीमरत्तब[4] हो सकती है।

ज़ेल[5] का इक़्तिबास[6] में इस तरह की एक मर्तबा[7] आप-बिती से माखूज़[8] है। आप-बितीअदब[9] की वह सिनफ[10] है जिसमें मुसन्निफ[11] अपनी जिंदगी के हालात खुद बयान करता है। आप-बिती के ज़रिये मुसन्निफ के खयालातो-अफ्कार[12] के पेश-मंज़र[13] का इज़हार होता है। ज़ेल के इक़्तबास में प्रेमचंद ने बड़ी साफ ग्वाही से समाज के बेशतर[14] मसाईल पर इज़ारे-खयाल किया है। मुलाज़मत, दोलत, औलाद की तर्बियत[15] और ज़ाती मुश्किलात का ज़िकर असर-अंगेज़ ही नहीं बल्कि सबक-आमेज़ भी है। इस इक़्तबास से यह हकीकत भी उजागर होती है कि इंसान अपनी ज़ाती महनत, लगन, जद्दो-जहद और इमांदारी के बल-बुते पर किस तरह समाज में बुलंद मकाम हासिल कर सकता है। इस इक़्तबास में प्रेमचंद ने नॉवेल-नवेसी[16] और अफसाना-निगारी[17] से मुताल्लुक अपनी ज़हनी रव्वये का इज़हार भी किया है। इनके यह जुमले[18] काबिले गोर हैं। - मैं नॉवेल को इंसानी किरदार की मुसव्वरी[19] समजता हूँ। इंसानी किरदार पर रोशनी डालना और इसके असरार को खोलना ही नॉवेल का बुनियादी मकसद है।और महज़ वाकए के इज़हार के लिए मैं कहानियाँ नहीं लिखता। मैं इनमें किसी फिलसफ्याना या ज़ज़बाती हकीकत का इज़हार करना चाहता हूँ।


मेरी ज़िंदगी हमवार[20] मैदान की तरह है जिनमें कहीं गढ़े[21] तो है लेकिन टेल्वों, पहाड़ों, गहरी घाटियों और घारों[22] का पता नहीं है। जिन हुज़रात[23] को पहाडों की शेर का शोक हो उन्हें यहाँ मायुसी होगी।

मेरा जनम सं. 1880 में हुआ। बाप कग नामः मुंशी अजायबलाल, सुकूनत[24]- मोज़ा[25] मढ़वा लम्ही, तहसील[26] पांडेपुर, बनारस। वालिद डाकखाने में क्लर्क थे। वालिद शायद बीस रूपये माहाना[27] पाते थे। चालिस रूपये तक पहुंचते पहुंचते इन का इंतकाल हो गया। वालिदा भी मेरे सातवें साल गुज़र चुकी थी। यूं तो वालिद बड़े दूर-अंदेश, मुहतात[28] और दुनिया में आंखें खोलकर चलने वाले थे लेकिन आखरी उमर में एक ठोकर खा ही गये और खूद तो गिरे ही थे, इसी धक्के में मुझे भी गिरा दिया। इसके चंद साल बाद ही इन्हें सफरे आख़िरत[29] दरपेश[30] हो गया। घर में मेरी बिवी, सोतेली माँ और इनसे दो लड़के थें मगर आमदनी एक पैसे की न थी। घर में जो कुछ था छह माह तक वालिद की अलालत[31] और इसके बाद तज्हीज़ो तक्फ़ीन[32] पर खर्च हो गया।

मुझे एम-ए पास कर के वकील बनने का इरादा था। सरकारी मुलाज़मत उस ज़माने में भी इतनी ही मुश्किल से मिल्ती थी जितनी कि अब। दौड़ धूप[33] कर के शायद दस-बाराह रूपये की कोई जगह पा जाता मगर यहाँ तो आगे पढ़ने की धुन थी मगर पाओं में लोहे की नहीं, अश्ट-धात की बेड़यां पड़ी हुई थी और में पहाड़ चढ़ना चाहता था।

अपनी आपबिती किससे कहूँ .. पाओं में जुते न थे। बदन पर साबित[34] कपड़े न थे। गिरानी[35] अलग। इस्कूल से साढ़े तीन बजे छुट्टी मिलती थी। हेडमास्टर साहब ने फीस माफ कर दी थी। इम्तिहान सर पर था और मैं बांस के फाटक पर एक लड़के को पढ़ाने जाया करता था। जाड़े[36] का मोसम था। चार बजे शाम को पहुँच जाता और छह बजे छुट्टी पाता था। वहां से मेरा घर पांच मैल पर था। तेज़ चलने पर भी आठ बजे रात से पहले घर न पहुँचता। रात को खाना खाकर बिजली के सामने पढ़ने बैटता और न मालूम कब सो जाता। इत्तफाक से एक वकील साहब के लड़कों को पढ़ाने का काम मिल गया। पांच रूपये तंख्वा ठहरी। मैंने दो रूपये में गुज़र कर के तीन रूपये घर देने का मुसम्मम[37] इरादा किया। वकील साहब के इसतबल[38] के ऊपर एक छोटी सी कच्ची कोठरी थी। इसमें रहने की इजाज़त मिल गयी। एक टाट[39] का टुकड़ा बिछा लिया। बाज़ार से एक छोटा सा लेम्प लाया और शहर में रहने लगा। घर से कुछ बरतन भी लाया। एक वक़्त खिचड़ी पका लेता और बरतन धो-मांज कर लाईब्रेरी  चला जाता।

जिन वकील साहब के तड़के को पढ़ाता था उनके साले मेट्रिक्युलाशन में मेरे साथ पढ़ते थे। इन्हिकी सिफारिश के मुझे यह ट्यूशन मिला था। इस दोस्ती की वजह से जब ज़रुरत होती, इनसे पैसे उधार ले लिया करता और तंख्वा मिलने पर हिसाब बेबाक कर देता। कभी दो रूपये हात आते, कभी ती. जिस दिन तंख्न्वा के दो-तीन रूपये मिलते, मेरी कुव्वते-इरादी[40] की बाग[41] ढिली हो जाती। ललचाई आंखें हलवाई की दुकान की तरफ खिंच ले जाती। और दो-तीन आने के पैसे खतम किये बगैर वापस न आता। फिर इसी दिन फिर से उधार लेना शुरू कर देता। लेकिन कभी कभी उधार लेने में पेसो-पेश[42] भी होता जिसकी वजे से सारा दिन रोज़ा रखना पड़ता।

वह दिन तक तो एक एक पैसे के भुने हुए चने खा कर काटे। मेरे महाजन[43] ने उधार देने से इंकार कर दिया और मैं लिहाज़[44] के मारे उससे मांगने की ज़ुराईत[45] न करता था। चिराग जल चूके थे। इस वक़्त में एक बूक सेलर की दुकान पर एक किताब बेचने गया जो चक्रवरती की एरिथमेटिक की शरह[46] थी और जिसे मैने दो साल हुए खरीदा था। अब तक इसे बड़ी एहतियात[47] से रखा था लेकिन आज जब चारों तरफ से मायुसी हो गई तो इसे फरोख्त[48] करने का इरादा किया। किताब की कीम्मत दो रूपये थी लेकिन एक रूपये में सोदा हुआ।

हम खर्मा व हम शवाब मेरी इबतिदाई[49] तसानीफ़[50] हैं। सं 1904 में एक हिंदी नॉवेल प्रेमा लिखकर इंडियन प्रेस से शाई करवाया। सं 1912 में जल्वा एशार लिखा। पोतदारजी की सल्हा से मैं ने सेवा सदन (बाज़ारे-हुसन) नामी नॉवेल लिखा। सेवा सदन की जो कदरो-मंज़िलत[51] हुई इससे मेरी होसला अफ्ज़ाई[52] हुई और मैंने दूसरा नॉवेल प्रेम आश्रम (गोशिया आफियत[53]) लिखा। फिर रंग भूम और काया पलट लिखे। यह चारों नॉवेल दो दो साल के वक्फे[54] के बाद निकले। उर्दू में रिसाले[55] और अख़बारात तो बहुत निकलते हैं। शायद ज़रूरत से ज़्यादा। इस लिए कि मुसलमान एक लिटररी कोम है और हर तालीम-याफ्ता शख़्श अपने तैं[56] मुसन्निफ होने के काबिल समझता है। लेकिन पबलिशरों का कहत[57] है। सारे कल्मरौ-हिंद[58] में एक भी ढंग का पबलिशर मोजुद नहीं। बाज़[59] जो हैं इनका आदम और वजूद[60] बराबर है क्योंकि इन की सारी काइनात[61] चंद रद्दी के नॉवेल हैं जिनसे मुल्क या ज़बान के कोई फाईदा नहीं।

मैं नॉवेल को इंसानी किरदार की मुसव्वरी समझता हूँ। इंसानी किरदार पर रोशनी डालता और इस के असरार को खोलना ही नॉवल का बुनियादी मक्सद है। हमारा किरदारों का मुतालिआ[62] जितना वाज़ेह[63] और वसीअ[64] होगा, इतनी ही कामियाबी से हम किरदारों की मुसव्वरी कर सकेंगे। इंसानी फितरत न तो बिल्कुल सिया[65] होती है और न बिलकुल सफैद। इसमें दोनों रंगो का अजीब इतिसाल[66] होता है। अगर गिर्दो-पेश[67] के हालात इसके मुआफिक[68] होए तो फरिश्ता[69] बन जाता है और ना मुआफिक होए तो शैतान। वह हालात का महज़ एक खिलोना होता है।

पहले पहले सं 1907 में मैंने कहानियाँ लिखनी शुरू कीं। डाक्टर राबिंदर नाथ टागोर की कई कहानियाँ मैंने अंग्रेज़ी में पढ़ी थीं। इनमें से बाज़ का तरजुमा किया। मेरी पहली कहानी का नाम था दुनिया का सब से अंमोल रतन। वह सं 1907 में रिसाले ज़माना में छप्पी। इसके बाद मैंने ज़माने में चार पांच कहानियाँ और लिखीं। सं 1909 में पांच कहानियाँ का मजमुआ सोज़े-वतन के नाम से ज़माना प्रेस कानपुर से शाए हुआ। इन पांच कहानियों में हुब्बे-वतन[70] का तराना[71] गाया गया है।

मेरे किस्से अक्सर किसी न किसी मशाहदे[72] या तजुर्बे पर मुबनी[73] होती है। इनमें ड्रामाई केफियत[74] पैदा करने की कोशिश करता हूँ मगर महज़ वाकए के इज़हार में कहानियाँ नहीं लिखता। मैं इनमें किसी फिल्सिफियाना या जज़बती हकीकत का इज़हार करता हूँ। जब तक इस किसम की कोई बुनियाद नहीं मिलती, मेरा कलम नहीं उठता। ज़मीन तयार होने पर मैं केरेक्टरों की तखलिक[75] करता हूँ। बाज़ ओकात[76] तारीख़[77] के मुतालिए[78] से भी प्लॉट मिल जाते हैं लेकिन कोई वाकिंआ अफसाना नहीं होता तावक़्तिके[79] वह किसी नफ़सियाती[80] हकीकत का इज़हार न करे।

अदीब[81] इंसानियत का, उलू-ए-नियत[82] का और शराफत का अलम्बरदार[83] होता है। जो पामाल[84] है, मज़लूम[85] है, महरूम[86] है, चाहे वह फर्द[87] हों या जमाअत[88], उनकी हिमायत[89] या वकालत[90] इसका फर्ज़ है। उसकी अदालत सोसायटी है. इस अदालत के सामने वह अपना इस्तघाशा[91] पेश करता है।

मेरी तमन्नायें बहुत महदूद[92] है। इस वक़्त सब से बड़ी आरज़ू यही है कि हम अपनी जंग-ए-आज़ादी में कामियाब हों। मैं दोलत व शोहरत का ख्वाहिशमंद नहीं हूँ। खाने को भी मिल जाता है। मोटर और बंगले की मुझे हवस[93] नहीं है और हाँ!  यह ज़रूर चाहता हूँ कि दो-चार बुलंदपाया तसनीफ़ें छोड़ जाउं लेकिन इनका मक्सद भी हसूल-ए-आज़ादी[94] ही हो। अपने दोनों लड़कों केलिए भी कोई मंसुबा[95] नहीं रखता। सिर्फ यह चाहता हूँ कि वह इमांदार, मुखलिस[96] और मुस्तकल[97] मिज़ाज हो। ऐशपसंद और दोलत-परस्त खुशाम्दी[98] औलाद से मुझे नफरत है। मैं बेहरकत ज़िन्दगी को भी नापसंद करता हूँ। अदब और वतन की ख़िदमत का मुझे हमेशा ध्यान है। यह ज़रूर चाहता हूँ कि दाल-रोटी और मआमुली कपडे मुय्यसर[99] हो जाएँ।

सोने, रूपये से लदा हुआ आदमी किसी भी हेशियत से बड़ा नहीं हो सकता। दोलत मंद को देखते ही आर्ट और इल्म के मुतालुक इसके बुलंद बांग बड़बोलों को मैं दूसरे कान से निकाल देता हूँ। मुझे यह महसूस होता है कि इस शख़्श ने उस समाजी निज़ाम[100] की ताईद[101] की है जो अमीरों के हाथों, गरीबों की खूँआशामी[102] पर क़ाईम है। ऐसा कोई बड़ा नाम मुझे मुतासिर नहीं कर सकता जो दोलत का पुजारी हो। मुमकिन है कि मेरी नाकाम जिंदगी ने मेरे जज़बात इतना तुल्ख[103] बना दिया हो और यह भी मुमकीन है कि बेंक में कोई मोटी रक़म जमाअ करने के बाद शायद मैं भी उन जैसा हो जाता और लालच का मुकाबला न कर पाता लेकिन मुझे फख़्र है कि फितरत और किसमत ने मेरी मदद की और मुझे गरीबों का शरीक-ए-ग़म बना दिया। इससे मुझे रुहानी तसकीन[104] मिलती है।




माअनी व इशारात
आख़री उमर में एक ठोकर खा ही गये प्रेमचंद के वालीद ने पहली बीवी के इंतकाल के बाद बुढ़ापे में दूसरी शादी की थी। इसकी तरफ इशारा है।
इसी धक्के में मुझे भी गिरा दिया उनके वालीद ने प्रेमचंद की भी शादी कर दी।
आश्ट-धात की आठ धातु की मज़बूत(مضبوط) 
कलमरौ मम्लुकत - राष्ट्र(مملکت)
उलू-ए-नीयत नियत की बुलन्दी, मुराद-ए-नीयत की पाकिज़गी
इस्तघाशा कानूनी इस्लाह, फरियाद, शिकायत

मश्क व मुतालिया
अलिफ
अव्वलः दो या तीन जुमलों में जवाब दीजिए
  1. प्रेमचंद ने अपनी पढ़ाई किस तरह जारी रखी?
  2. प्रेमचंद ने अपनी एरिथमेटिक की किताब क्यों बेची?
  3. उर्दू पब्लिशरों के बारे में प्रेमचंद ने क्या कहा?
  4. प्रेमचंद की पहली कहानी का क्या नाम था? वह कब और किस रिसाले में छप्पी थी?
  5. प्रेमचंद की आर्ज़ुएं क्या थी?
  6. प्रेमचंद अपनी औलाद में क्या खूबियां देखना चाहते थे?

दुव्वमः मुख्तसर जवाब दीजिए-
1.प्रेमचंद कहानियां लिखते वक़्त किन बातों का ख़याल रखते थे
2. दोलतमंद के बारे में प्रेमचंद की क्या राय थी?

बेः मंदरजा ज़ेल[105] बयानात की तशरीह[106] कीजिए
  1. पांव में लोहे की नहीं आश्टधात की बिड़ियां पड़ी हुई थीं और मैं पहाड़ चढना चाहता था।
  2. अदीब इंसानियत का, उलू-ए-नीयत का और शराफत का अलम्बदार होता है। जो पामाल है, मज़लूम है, महरूम है, चाहे वह फर्द है या जमाअत, इनकी हिमायत और वकालत इसका फर्ज है। इसकी अदालत सोसायटी है। इस अदालत के सामने वह अपना इस्तघाशा पेश करता है।




[1] मकाम -  जगह, स्थान  مقام    
[2] मजमुएं-समुह مجموعے
[3] मकामात-बहुवचन मकाम काمقامات    
[4] मरत्तब, मरातिब-  दर्जेمرّتب    
[5] ज़ैल- नीचे ذیل  
[6] इक़्तिबास- उद्धरण, अंश, excerptاقتباس    
[7] मर्तबा- पद, इज़्ज़त مرّتبہ  
[8] माख़ूज़- लिया हुआ, adoptedماخوذ    
[9] अदब- आदर, साहित्यادب    
[10] सिनफ- भांति, वर्ग, kind, class    صنف 
[11] मुसन्निफ- लेखक  مصنّف 
[12] खयालातो- अफ्कार- चिंताएं خیالات وافکار  
[13] पेश-मंज़र- परिदृश्य   پیش منظر        
[14] बेशतर- अधिकतर  بیشتر                 
[15] औलाद की तर्बियत पालनपोण     اولاد کی تربیت
[16] नॉवेल-नवेसी- नोवेल लिखनाناول نویسی       
[17] अफसाना निगारी-  कहानीकारी  افسانہ نگاری 
[18] जुमले वाक्ये, sentencesجملے     
[19] मुसव्वरी-चित्रकारी    مصّوری    
[20] हमवार-समतल, plain   ہموار 
[21] गढ़े- खड्डे  گڑھے                                                            
[22] घारों- गुफाएं,caves غاروں    
[23] हज़रात- प्रेक्षक,लोग  حضرات   
[24] सुकूनत- निवासस्थान   سکونت
[25] मोज़ा-गांव   موضع
[26] तहसील- हासिल करना, collect   تحصیل      
[27] माहाना-महीने मेंماہانہ     
[28] मुहतात-सावधान,सतर्क  محتاط      
[29] सफरे आख़िरत-अंतिम यात्रा   سفر آخرت  
[30] दरपेश- उपस्थित   درپیش 
[31] अलालत-बीमारी  علالت  
[32] तज्हीज़ो तक्फ़ीन- सथासामग्री दफन   تجہیزوتکفین 
[33] दोड़ धूप-संघर्श دوڑ دھوپ  
[34] साबित- स्थिर,प्रमाणितثابت     
[35] गिरानी-बोझ, महेंगाई  گرانی
[36] जाड़े का मोसम- सर्दी का मोसम جاڑے کا موسم    
[37] मुसम्मम- दृढ़, firm     مصّمم  
[38] इसतबल-तबेला, stable اصطبل       
[39] टाट-केनवस,canvas  ٹاٹ    
[40] कुव्वते इरादी- इच्छा शक्ति      قوّت ارادی
[41] बाग- बागदोर, bridle   باگ
[42] पसो-पेश- अनिच्छा, झिझक      پس و پیش
[43] महाजन- साहूकार, money lender  مہاجن    
[44] लिहाज़- विचार,ध्यान,शर्म  لحاظ    
[45] ज़ुराईत-साहस करना  جرا‎ۂت   
[46] शरह- गाइड, notes         شرح
[47] एहतियात- सावधानीاحتیاط     
[48] फरोख़्त- बिक्री فروخت     
[49] इब्तिदाई- आरंभी ابتدائ   
[50] तसानीफ़- रचनाओंتصانیف     
[51] कदरो मंज़िलत- मान व इज्जत    قدر و منزلت 
[52] होसला अफ्ज़ाई- उत्साह वर्धक     حوصلہ افزا‎‎‎‎ی   
[53] गोशिआ आफियत- कोने खैरियत का   گوشہ عافیت
[54] क़्फे- विराम,ब्रेक    وقفے  
[55] रिसाले- पत्रिकाएं رسالے    
[56] तैं अपने आप की ओर تیۂں    
[57] कहत अकाल, scarcityقحط     
[58] कलमरौ-हिंद भारतिय भूतल  قلمروہند   
[59] बाज़ कुछ, चंद بعض   
[60] आदम और वजूद गैर अस्तित्व  عدم اور وجود     
[61] काइनात विश्र्व کایۂنات   
[62] मुतालिआ- अध्ययन, निरीक्षणمطالعہ     
[63] वाज़ेह स्पष्टواضح       
[64] वसीअ विस्तृत, व्यापक  وسیع    
[65] सिया कालाسیاہ     
[66] इतिसाल मेलमिलाप   اتصال
[67] गिर्दो-पेश आसपास की हालत  گردو پیش   
[68] मुआफिक अनुकूल  موافق   
[69] फरिश्तादेवदूत, angleفرشتہ       
[70] हुब्बे-वतन स्वदेश-प्रेमحبّ وطن      
[71] तराना गान  ترانہ  
[72] मशाहदे- अवलोकन, observationsمشاہدے      
[73] मुबनी आधारित, depended, based مبنی      
[74] केफियत स्थिति      کیفیت 
[75] तखलिक निर्माण, createتخلیق    
[76] बाज़ ओकात कभी कभी بعض اوقات   
[77] तारीख़ इतिहास تاریخ    
[78] मुतालिए अध्ययन    مطالعے     
[79] तावक़्तिके- जब तक  تاوقتیکہ    
[80] नफ़सियाती- मनोवैज्ञानिक, मानसिकنفسیاتی       
[81] अदीब- लेखक, विद्वान   ادیب     
[82] उलू-ए-नियत- नियत की बुलन्दी   علوے نیت                              
[83] अलम्बरदारअग्रदूतों, pioneerعلمبردار     
[84] पामाल तहस-नहस, ruinedپامال     
[85] मज़लूम- विपत्ति-ग्रस्त, oppressedمظلوم     
[86] महरूम वंचित, deprived محروم      
[87] फर्द- व्यक्ति, individualفرد      
[88] जमाअत- समुदाय, society   جماعت    
[89] हिमायत- समर्थन, helpحمایت    
[90] वकालत- पक्षपोषण, advocacyوکالت      
[91] इस्तघाशा- अभियोजन, appealاستغاثہ     
[92] महदूदसीमित  محدود   
[93] हवस- वासना ہوس   
[94] हसूल-ए-आज़ादी- स्वतंत्रता की प्रोप्ती  حصول آزادی       
[95] मंसुबा- योजना   منصوبہ 
[96] मुखलिस- ईमानदार, sincereمخلص     
[97] मुस्तकल- स्थायी   مستقل   
[98] खुशाम्दी- चापलूसخشامدی    
[99] मुय्यसर- उपलब्ध          میسّر  
[100] निज़ाम- प्रणालीنظام     
[101] ताईद- साहायताتائید     
[102] ख़ूँनाशामी- खून पीनेवालाخوںآ‏شامی     
[103] तुल्ख- कड़वा, pungentتلخ        
[104] तसकीन- संतोष   تسکین     
[105] मंदरजा ज़ेल निम्नलिखित مندرجہ  ذیل     
[106] तशरीहव्याख्या, interpret   تشریح