آئندہ حکومت سے امن کا
پیغام عام کرنے کی اپیل
आइंदा हकुमत से अमन का पैग़ाम आम करने
की अपील
नई दल्ली,
17 अप्रील (सय्यद अनेईन अली हक)
पार्लियामानी इंतखा़ब[1]
2014 से कबल[2] सभी
संजीदा[3]
लोग और गैर-सियासी तंज़ीमों[4]
सामने आ रही हैं और उन सब का मानना है कि एक ऐसी हकुमत बरसरे-इक़्तिदार[5]आए
जो हिंदुस्तानी जम्हुरियत[6]
की पासदारी[7]
करते हुए मुल्क को तरक़्की की राह पर गामज़न[8] कराए। मुल्क में
सभी मज़हब की तरक़्की ही हिंदुस्तान की तरक़्की है। आज दिल्ली युनिवरसिटी आर्ट
फेकलटी के मैन गेट पर तलबा[9]
ने आज एक मीटिंग मुनअक़िद[10]
की और इन लोगों ने हिंदुस्तान के मुस्तक़बिल[11]
को बेहतर बनाने केलिए कुछ मशवरे दिए। इन तलबा का कहना है कि हम सभी तालिबे-इल्म[12]
सियासी पार्टीयों से अपील करते हैं कि बरसरे-इक़्तिदार जो भी पार्टी आए मुल्क के तैं[13]संजीदा हो और अमन व भाईचारगी
क़ाईम रखते हुए मल्क को तरक़्की की राहों तक ले जाए और
नई हकुमत की तशकील[14]के
बाद वह युरपी युनियन की लाइंनों पर कंफेडरेशन के तोर पर मुतहिद[15] किया जाए ताकि
हमारी बरसग़ीर के मुमालिक[16]
मुतहीद हो कर तरक़्की करें। यह इंतख़ाब नई नसल के जमहुरियत पसंद नौजवानों के
मुस्तक़बिल और इनके ख़्वाबों का भी फैसला करेगा। इतेहाद व एतमाद[17]
और दोस्ताना तालुक़ात नहीं होने की वजह से हिंदुस्तान और पाकिस्तान को इसतेमाल
करते हुए इनकी गुरबत[18]
का फाईदा उठाया जा रहा है। यह दोनों मुल्क अपने हिफाज़ती इंतज़ामात[19]
पर बड़ी रक़म ख़र्च करते हैं जब कि यह रक़म ग़ुरबत और फ़लाह व बहुबूद[20] में ख़र्च की जा
सकती है। हमें मुतहिद होना होगा तभी दोनों
मुमालिक[21] तरक़्की कर सकते हैं। एकम जून
2013 को दिल्ली युनिवर्सिटी के कुछ तालबा ने साइकल के ज़रिये कन्या कुमारी से अमनो-अमान[22] की ख़ातिर सफर शुरू किया था
जो इसलामाबाद तक केलिए था। लेकिन कुछ वजुहात[23] के सबब पंजाब सरहद पर इख़्तिताम
पज़ीर[24] हुवा था। 15 अगस्त 2013 को यह
सिलसिला ख़तम हुआ था, चार हज़ार किलोमिटर, का सफर 75 दिनों में तय कर के अमन का
पैग़ाम आम करने की कोशिश की गयी थी। साईकल के ज़रिये अमन का पैग़ाम आम करने का इरादा
दोबारा तलबा ने किया है। हमारा मुल्क तरक़्की नहीं कर पा रहा है जिसकी वाहिद वजह
फ़रका वराना फ़सादात[25] हैं। हमें चाहिए कि मुज़फरनगर
जैसे फसादात पेश न आयें।
प्रवीन सिंग (एम. ए., शोबा[26] बुधमत) और लिंडा लवाईज़
(एम.फिल., बशतरयात[27])
वगैरा के अलावा काफी तलबा मौजुद थे।
मेरा इज़हारे ख़यालः युरोपियन युनियन
का खयाल में ही तो सारे मामले का हल दरपेश है. लेकिन यह बात कोई ज़िकर नहीं है कि
दोनो पाकिस्तान और हिंदुस्तान को राम राम ठोक ने का वक़्त चला आएगा। असल में
हिंदुस्तान पाकिस्तान बरकरार रखने केलिए ही तो है मुज़फरनगर के दंगे फ़साद। अगर हम मज़हब को कम और ज़बान को ज़्यादा
अहेमियत देना पसंद करने लगेंगे – जैसेकि
युरोपियन युनियन में है - तो फिर यह भी समझने लगेंगे हम कितने बेशरम है कि मज़हब
का खयाल रखकर हिंदुस्तान को एक करके रखा हुआ है और एक छोटे से श्रीलंके से – एक या दो भाषी मुल्क के सामने पुर ज़ोर तैयारी के साथ
(क्रिकेट) खेलते है (और हार भी जाते है) और कुछ ग़लत होने का एहसास भी किसी में
नहीं आता है। दरअसल बात यह है कि जो सोचने वाले थे वह 1947 में अपने वतन चले गये.
और गु़लामों से क्या उम्मिद की जा सकती है।
posted on 14-04-2014, 12 midnight (Face Book)
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