रविवार, 23 मार्च 2014

सारे जहां से अच्छा + 1

            तराना -ए-हिंद

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी यह गुलिस्तान हमारा
गुरबत[1] में हों अगर हम रहता है दिल वतन में
समजो वही हमें भी दिल हो जहाँ हमारा
परबत वह सब से ऊंचा हमसाया[2] आसमां का
वह संतरी  हमारी वह पासबां[3] हमारा
गोदी में खेलती है इसकी हज़रों नदियां
गुलशन है जिन दम से रशक[4]-ए-जनां[5] हमारा
ए आब ए रोद[6] ए गंगा वह दिन है याद तुझको
उतारा ए तेरे किनारे जब कारवां हमारा
मज़हब नहीं शिखाता आपस में बैर रखना
हिंदी है हम, वतन है हिंदुस्तान हमारा
युनान व मिस्र व रोमा सब हट गये जहां से
अब तक मगर है बाकी नाम व निशान हमारा
कुच्छ बात है कि हसती मिटती नहीं हमारी
सदीयों रहा है दुशमन दौर-ए-ज़मां[7] हमारा
इकबाल कोई महरम[8] अपना नहीं जहां में
माअलूम क्या किसीको दर्द-ए-निहां[9] हमारा

(अलामा इकबाल) (علّامہ اقبال)                       




[1] ग़ुरबतः प्रवास, tour  ‏غربت                             
[2] हमसायाः पड़ोसी, neighbour   ہمسایہ               
[3] पास्बां- प्रहरी, protectorپاسباں                       
[4] रश्कः प्रतिस्पर्ध्दा, envy رشک                         
[5] जनां -  स्वर्ग, paradiseجناں                          
[6] रोदः stream, current رود                               
[7] दोरे-ज़मां युग, periodدور زماں                 
[8] महरमः राज़दार intimate friendمحرم            
[9] दर्दे निहां- छुपा हुआ दर्द, inner painدرد نہاں 




इक पहाड़ और गिलहरी
ایک پہاڑ اور گلہری

कोई पहाड़ यह कहता था एक गिलहरी से
तुझे हो शरम तो पानी में जा के डुब मर
ज़रा सी चीज़ है इस पर ग़रुर क्या कहना
यह अक्कल और यह समझ, यह शउर[1] क्या कहना
खुदा की शान है नाचीज़ चीज़ बन बैठी
जो बेशउर हो युं बातमीज़ बन बैठी
तेरी बिसात है क्या मेरी शान के आगे
ज़मीन है पस्त मेरी आन-बान के आगे
जो बात मुझ में है तुझ को वह है नसीब कहां
भला पहाड़ कहां जानवर ग़रीब कहां
ज़रा से कद पे तुझे चाहिए न उतरना
कि मेरे सामने तेरा घमंड है बेजा
मेरे तफैल[2] से पानी मीला दरीया को
दबाए बेठा हूं दामन में दश्त[3] व सहरा[4] को
फलक की शान से आंखे मिलाये बैठा हूं
बनों को पीठ पर अपनी उठाए बैठा हूं
इसे जो चूमती है उठ कर चोटीयों मेरी
बुलायें लेती है झूक झूक के आसमां मेरी
जो बर्फ है मेरे सर पर बदन में सबज़ी है
हरी कमीज़ पे गोया[5] सफैद पगड़ी है
बड़ा पहाड़ हूं मैं शान है बड़ी मेरी
किसीसे हो नहीं सकती बराबरी मेरी
कहा यह सुनकर गिलहरी ने मुंह सम्भाल जरा
खुदा की शान है नाचीज़, चीज़ बन गई
यह कच्ची बातें हैं दील से इंहे निकाल ज़रा
जो में बड़ी नहीं तरह तो क्या परवा
नहीं है तू भी तो आखीर मेरी मेरी तरह छोटा
हर एक चीज़ से पैदा खुदा की कुदरत है
कोई बड़ा, कोई छोटा, यह इसकी हकुमत है
बड़ा जहान में तुझको बना दिया उसने
मुझे दरख्त[6] पे चढ़ना सीखा दिया उसने
कदम उठाने की ताकत नहीं ज़रा तुझमें
तेरी बढ़ाई है खुबी है और क्या तुझमें
जो तू बड़ा है तो मुझ सा हुन्नर देखा तुझको
यह छालिया[7] ही ज़रा तोड़ कर दिखा मुझको
नहीं है चीज़ निकम्मी कोई ज़माने में
कोई बुरा नहीं कुदरत के कारखाने में
ज़रा सी बात है इन्साफ से मगर  कहना
यर ज़िन्दगी  है कोई इस तरह पड़े रहना
कदम न उठे तो जिना है मोत से बदतर
हज़ार अईब[8] से इक अईब है बड़कर
कलम बना के न लाता अगर मेरी दूम का
हुनर को अपने मुसव्विर[9] भला दिखा सकता
जहान के बाग़ की गोया सिंघार है हर चीज़
कि अपनी अपनी जगह शानदार है हर चीज़
नहीं किसी को हिकारत[10] से देखना अच्छा
यह बात किसीको समझ ली वही रहा अच्छा
पहाड़ सून के गिलहरी की बात शरमाया
[11] है कि बड़े बोल का है सिर नीचा


 (अलामा इकबाल) (علّامہ اقبال)            






[1] शऊरः decency, wisdom شعور                     
[2] तफैलः by means ofطفیل                             
[3] दश्तः wood, forest دشت                               
[4] सहराः desertصحرا                                        
[5] गोयाः as if, as though, as it wereگویا            
[6] दरख़्तः treeدرخت                                          
[7] छालियाः betelnut چھالیہ                                                       
[8] अईबः sin, defect, defectiveعیب                   
[9] मुसव्विरः painter, photographer  مصوّر        
[10] हिकारतः contempt, hatredحقارت                 
[11] मसलः कहावत proverbمثل                         

मंगलवार, 18 मार्च 2014

बच्चों के इकबाल بچّوں کے اقبال



The idea behind this blog is to tag on to some original Urdu literary work that I have come across in the wake of my learning Urdu from School books, NCPUL reading material, Urdu new papers and like.  It is primarily for those who have lost sense of love and appreciation of its ornamental script and know only the Devnagari script.



بچّوں کے اقبال

बच्चों के इकबाल

कुछ अलामा इकबाल के बारे में
9 नवेंबर 1877 को तारीख़ उर्दू अदब के लिये बड़ी एमियत रखती है। जानते हो क्या बात है? इसलिए कि इस दिन उर्दू के एक बहुत बड़े शायर पैदा हुए। तुमने भी उनका नाम सुना होगा। उनका नाम था डॉकटर सर महम्मद इकबाल। यह न सिर्फ बहुत बड़े शायर थे बल्कि बहुत बड़े फिल्सफी भी थे, आलिम[1] भी थे। इस लिए लोग इन्हें अलामा[2] इकबाल कहते हैं।

अलामा इकबाल के आबा-ओ-अज़दाद[3] काशमिरी पंडित थे। सप्रोगोत के ब्राहमण थे जो ढाई तीन सो साल पहले मुसलमान हो गये थे। फिर यह लोग कश्मिर छोड़कर पंजाब में सियालकोट चले आएं और यहीं आकर बस थे। अलामा इकबाल के वालिद शेख नूर महम्मद का सियालकोट में एक छोटा सा कारोबार था लेकिन इनका कारोबार में जी न लगता था। जो कुछ थोड़ा बहुत इस काम में मिल जाता इसमें बड़े सबर और शकर के साथ गुजर बसर लेते थे। यह बड़े नेक और अल्लावाले इंसान थे। इन्हें दुनिया के कामों से जब फुर्सत मिलती तो वह इस वक़्त को बुज़ुर्गों और नेक लोगों की ख़िदमत में बैठकर गुज़ार देते। यही वजह है कि लोग इनकी बड़ी इज़्ज़त करते थे।

शेख नूर महम्मद के दो बेटे थे। एक अताअ महम्मद और दूसरे महम्मद इकबाल। अताअ महम्मद इकबाल से सतरा-अठरा साल बड़े थे। इन्होंने ही इकबाल को इल्मी तालिम हासिल करने में मदद की। इंग्रेजों के ख़िलाफ हिंदुस्तान में 1857 की बगावत इकबाल की पैदाइश से 20 साल पहले हुई थी। इसका नतीजा यह हुआ कि आम तोर पर हिंदुस्तानियों में और ख़ास तोर पर मुसलमानों के दिल में अंग्रेजियों से नफरत बैठ गई थी। मुसलमान तो इतने नाराज़ थे कि वह अंग्रेज़ी तालीम के ही सरे से मुख़ालिफ हो गये। लेकिन शेख नूर महम्मद पुराने ख़याल के आदमी न थे। उन्होंने अपने दोनों लड़कों को अंग्रेजी तालीम दी। उनके बड़े बेटे अताअ महम्मद पढ़ लिखकर एँजिनियर हो गये और इकबाल मिशन स्कूल में अरबी के एक उस्ताद थे मोलवी मीर हसन शाह। यह बहुत अच्छे उस्ताद थे और अपने शागिर्दों को बड़े शोक से पढ़ाते थे। इन्होंने चंद रोज़ के अंदर अंदाज़ा लगा लिया कि इकबाल कोई आम तालिबे-इल्म[4] नहीं थे। इसलिए वह इकबाल को और ज़्यादा महेनत से पढ़ाते थे। इकबाल की ज़िंदगी पर जिन उस्तादों का गैर मामूली असर पड़ा इन में मौलवी मीर हसन काबिले-ज़िक़्र है।

एक बार ऐसा हुआ कि शेख़ नूर महम्मद को ख़याल पैदा हुआ कि इकबाल को महज़[5] दिनवी तालिम दी जाए। चनांचा वह मौलवी मीर हसन शाह के पास गये और इनसे यह बात कही कि मैं सोचता हूँ कि क्यों न इकबाल को सिर्फ दिनी तालिम दी जाए यानी वह स्कूल के बजाए मस्जीद में दिन्यात पढ़ लिया करे। मौलवी साहब ने इनकी यह बात बड़े गौर से सुनी और बोले यह बच्चा मस्जीद में पढ़ने केलिए पैदा नहीं हुआ। यह अंग्रेज़ी तालीम हासिल करेगा। आप इसको इस्कूल में पढ़ने दीजिए।

शेख़ नूर महम्मद नेक आदमियों को कबुल कर लेते थे। इन्होंने आपकी बात मान ली। अभी इकबाल स्कूल में ही पढ़ रहे थे कि इन्होंने शेर कहने शुरू कर दिये। उस ज़माने में उर्दू और फारसी  के शुरा[6] का कलाम भी पढ़ रहे थे। मौलवी मीर हसन शाह ने इन्हें ख़ास तोर पर फारसी के बड़े शायरों का कलाम पढ़ाया। उन्होंने मौलवी साहब से  गुलिस्तां, बोस्तां, सिकंदरनामा और अंवार सहेली वगैरा किताबें पढ़े। आम तोर पर यह किताबें फारसी के तालिबे-इल्मों को पढ़ाई जाती है। लेकिन मौलवी साहब ने इकबाल को ख़ास तोर पर यह किताबें पढ़ाई और कुछ इस तरह पढ़ाई कि इकबाल के दिल में फारसी अदब की इज़्ज़त पैदा हुई और इन्हें फारसी शायरों-अदब की बारिकियां को समझने का मौका मिला। मौलवी मीर हसन शाह शायर न थे लेकिन वह शेरो-शायरी की नज़ाकतों को खूब समझते थे। जब मौलवी साहब ने इकबाल के अशार[7] सुने तो बहुत खुश हुए और इन्हें अपने शीगिर्द की ख़ूब होसला अफज़ाई की। अब इकबाल को जब फुर्सत मिलती मो वह शेर कहते। इस ज़माने में हिंदुस्तान में उर्दू के मशहूर शायर दाईघ देहल्वी की बड़ी धुम थी। इनके बेशुमार शागिर्दो थे।  इकबाल ने अपना इनके पास इस्लाह के लिए  भेजा। दाईघ ने इनके कलाम को जरुरी इस्लाह[8] के बाद डाक के ज़रिये वापस कर दिया और इस कम उमर के शायर को बहुत हिम्मत बढ़ाई।

हालांकि इकबाल की शायरी का चर्चा दूर दूर पहूँचने लगा था लेकिन इन्होंने अपनी तालीम में ढील नहीं डाली। इन्होंने एंट्रंस के इम्तिहान में एज़ाज़[9] हासिल किया और इन्हें वजिफा[10] मिला। इनका यहीं यहीं स्कूल कॉलेज बन गया और मौलवी मीर हसन शाह कॉलेज में अरबी और फारसी में पढ़ाने लगे। इकबाल ने इनसे अरबी और फारसी में लियाकत[11] हासिल की। वह कॉलेज के बेहतरीन तालिबे-इल्म थे और इन्होंने इन्टरमिडियट का इम्तिहान भी एज़ाज़ से पास किया। और अब इन्हें सियालकोट छोड़ना पड़ा और वह बी-ए करने के लिए लाहोर चले गये। इन्होंने लाहोर में गवर्नमेंट कॉलेज में दाखिला ले लिया। इनको इस बात का गम था कि अब रोज़ाना मौलवी मीर हसन शाह से पढ़ने का मोका न मिलेगा। लेकिन यहाँ इनकी  मुलाकात प्रोफेसर आर्नलड से हुई।  वह अपने ज़माने के एक बड़े फिलसफी और आलिम थे। इससे पहले वह अलीगढ़ में भी उस्ताद रह चुके थे। इन्होंने इकबाल की सलाहियत[12] को पेहचान लिया और इकबाल ने इनसे बहुत कुछ सीखा। लाहोर में जब इकबाल ने अपना कलाम सुनाया तो इन्होंने लोगों के दिलों को जीत लिया। बड़े बड़े उस्तादों ने इनकी शायरी की तारीफ की।

लाहोर में इकबाल ने बी-ए और एम-ए के इम्तिहान बड़े एज़ाज़त[13] के साथ पास किये। और इनका ऑरियेंटल में फिल्सफा के उस्ताद की हेशियत से तकरर[14] हुआ। तालिबे-इल्म ही के जमाने में वह ख़ासे मशहूर हो गये थे। 1899 की बात है कि उन्होंने अंजुमन[15]-हिमायते[16]-इस्लाम के जल्से में अपनी नज़म नाला[17]-ए-यतीम[18] पढ़कर सुनाई। उसे सुन कर लोगों का दिल बेचैन हो गया और उनकी आंखो से आंसु बहने लगे। जिसको देखये वह रो रहा था। अब तो हर तरह इकबाल का चर्चा होने लगा। इसी जमाने में इन्होंने अपनी मशहूर कोमी नज़मे 'हिमालिया' और 'हिंदुस्तान हमारा' लिखें। हिंदुस्तान हमारा तो गोया गुलाम हिंदुस्तान का 'कोमी तराना' बन गया। मुल्क के कोने कोने में गाया जाने लगा। शायद ही किसी हिंदुस्तानी ज़बान की कोई नज़म इतनी मशहूर होई हो जितनी इकबाल की यह नज़म 'सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा'। इसने लोगों के दिलों में आज़ादी की तड़प पैदा कर दी। इस ज़माने में इन्होंने जो शायरी की इसमें हुब्बो-वतनी[19] का जज़बा[20] ज़्यादा हावी है। वह हिंदू और मुसलमान में इतेहाद[21] और इत्तफाक[22] चाहते थे।  वह 'हिंदुस्तान हमारा' में कहते हैं 'मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिंदी है हम वतन है हिंदुस्तान हमारा।'

इनकी ज़बान में चाशनी थी। बहुत साफ सुथरी और सीधी सादी थी। इसी ज़माने में उन्होंने मुनाज़िर फितरत पर बहुत खूबसुरत नज़में लिखी। इकबाल के उस्ताद प्रोफेसर, आर्नल्ड इंग्लिस्तान चले गये तो इकबाल के दिल में भी ख़याल पैदा हुआ कि वह आला तालिम हासिल करने के लिए युरोप चले जाएँ। चनांचा 1905 में वह भी युरोप के लिए रवाना हो गये। वहाँ उन्होंने  इंग्लिस्तान की मशहूर युनिवरसिटी केम्ब्रीज युनिवरसिटी में दाखला लिया।  केम्ब्रीज युनिवरसिटी से उन्होंने फिल्सफी की आला डिगरी ली और फिर वहाँ से जर्मनी चले गये। जर्मनी की म्युनिक युनिवरसिटी से इन्होंने पी-एच-डी की डिगरी ली। यह डिगरी उन्हें अपने मकाले[23] इरान में पिल्सफा इल्हियात[24] का अरतका[25] पर मिली।  फिर वह बरतानिया वापस चले गये जहाँ लंडन युनिवरसिटी से उन्होंने बेरिस्ट्री का इम्तिहान पास किया। प्रोफेसर आर्नल्ड लंडन युनिवरसिटी के अरबी के उस्ताद थे। वह छुट्टी पर गये तो इकबाल छे महिने तक लंडन युनिवरसिटी में अरबी पढ़ाते रहे।

युरोप में रह कर इकबाल की शख्शियत में निखार पैदा हुआ। आलिम तोर पर जो तालिबे-इल्म युरोप आते थे वह इसकी ज़ाहिरी चमक-दमक से बहुत मुतासिर होते थे। लेकिन इकबाल ने मघ्रबी तहज़ीब का खोखलापन देखा। उन्होंने देखा कि युरोप के मुमालिक[26] दुनिया भर का रुपया इकट्ठा करने की फिकर में लगे हुए हैं और हर मुल्क इसी कोशिश में है कि वह इस दोड़ में आगे निकल जाए। युरोप की सनअती[27] तरक्की ने इसे दिवाना बना दिया था। इसका पुरा फायदा इन मुमालिक के सरमायादार[28] उठा रहे थे और नाम वह कोम का लेते थे। इकबाल ने यह भी देखा कि वतन की इस झुटी महनत के नाम पर वह अपनी झोली भर रहे है और सारी दुनिया के पिच्छड़े हुए मुल्को के बसने वालों को गुलाम बना रहे हैं। जैसे हिंदुस्तान में बर्तानिया की हकुमत थी। इंडोनेशिया में होलेंड की, वगैरा, वगैरा.

यह बात हकीकत है कि जब सनअती तरक्की का दोर शुरू हुआ तो एक मुल्क का दूसरे मुल्क से मुकाबला हुआ। युरोप में उस जमाने में दो मुल्क बहुत आगे थे एक पुरतुगाल और दूसरा स्पैन। जब इनमें झगड़ा शुरू हुआ तो यह मामला रोम के पॉप की अदालत में पेश हुआ। पॉप ने ग्लोब मंगवाया। बाएँ तर्फ का हिस्सा स्पैन को और दाहिने तर्फ का पुर्तगाल को दे दिया।

इसके बाद तो फिर फ्रांस, होलेंड, जर्मनी, बर्तानिया और दूसरे मुमालिक इस दोड़ में आ गये और गोया रुपया कमाने की दोड़ कोम के नाम पर होने लगी। यानी हर मुल्क का सरमायादार अपने मुल्क के नाम पर रुपया बटोर ने लगा। युरोप के मुमालिक चाहते थे कि एशिया और आफ्रिका के ज्यादा तर मुल्कों को अपना ग़ुलाम बना ले ताकि इन्हें इन मुल्कों में अपना माल भेजने में आसानी हो। अलामा इकबाल ने सरमायादारों की इस हरकत को युरोप में अच्छी तरह समझा और इसलिए उन्होंने सोचा कि कोम्यित के माअनी[29] बदल रहे है। इस लिए इन्होंने अपना ख़याल को और वसाअत[30] दी और यह सोचा कि हमें न सिर्फ एक मुल्क की भलाई की बात करना चाहिये बल्कि हम्हें तो तमाम दुनिया के बसने वाले की भलाई का ख़याल करना चाहीये।  इस लिए उन्होंने कोमी नज़में लिखने के बजाए आम इंसान को अपना पैगाम दिया। इनका पक्का अकीदा[31] था कि आज की बिमार दुनिया को कुरान की तालिमात अच्छा कर सकती है इसलिए उन्होंने सारी दुनिया को यह पैगाम समझाने की कोशिश की।

एक बात अलामा इकबाल ने ख़ास तोर पर महसूस की कि मघ्रबी मुमालिक और मशरकी मुमालिक के सोचने में बहुत फर्क हो गया है। मशरकी मुमालिक के लोग रुहानियत के मामले में इतने आगे बढ़ गये कि माद्दी[32] तरक्की में पिछड़ गये। इसके बर-ख़िलाफ मघ्रबी मुमालिक का गला घोंट दिया। इकबाल माद्दयत और रुहानियत में एक किसम का तवाज़न[33] चाहते थे। इनकी ख़्वाहिश थी कि मशरकी मुमालिक के बसने वाले भी दुनिया के कामों में दिलचश्पी लें और अपनी हालात को बेहतर बनाएँ। इसी तरह युरोप के लोग जो दीन से घाफ़िल हो गए हैं और रुपये पैसा बढ़ाने में लगे हुए हैं, वह अपनी माद्दापरस्ती को कम करें और इस लोट खसूट से बाज़ आएँ। इनका अकीदा है कि हमारी यह जमीन खुदा की ज़मीन है। किसी एक आदमी की नहीं। यह झगड़ा सिर्फ इस लिए है कि हम इस को गल्ती से अपना समझ बैठे है और इसी वजह से ताकतवर कमज़ोर पर जुल्म करता है। उन्होंने अपनी एक नज़्म में मघ्रबी अक्वाम[34] को मुख़ातिब करते हुए लिखा।

दयारे[35]-मघ्रीब के रहने वालो ख़ुदा की बस्ती दुकां नहीं है।
खरा जिसे तुम समझ रहे हो वह अब ज़र कम अयार होगा।
तुम्हारी तहज़ीब अपने से आप ही खुदकुशी करेगी।
जो शाखे-नाज़ुक पे आशियाना बनेगा ना पाईदार होगा।

जब अलामा इकबाल युरोप से वापस आए तो और ज़्यादा मघ्रबी तहज़ीब के अलम्बरदार हो गए थे। उन्की ज़िंदगी और ज़्यादा सादा[36] हो गई थी। इनके ख़यालात में और ज़्यादा गेहराई पैदा हो गई थी।

अलामा इकबाल जनवरी 1908 में विलायत से वापस आए। उनकी शोहरत हिंदुस्तान में दूर दूर तक फैल गई थी। उनका बड़ा जबरदस्त इस्तकबाल हुआ।

जैसे कि मैंने पहले लिखा है कि अब इकबाल के दिल में यह ख़याल पैदा हुआ कि वह दुनिया के लोगों को पैगामे-हक दे तो उन्हें कुरान की तालिमात का ख़याल आए। जो किसी एक कोम को आगे बढ़ाने की बात नहीं करता बल्कि तमाम बनी-नू-ए-इंसान[37] की निजात[38] के लिए पैगाम देता है। चनांचा उन्होंने अपने पैगाम की बुनियाद ही कुरान की तालिमात पर रखी। उन्होंने सच्ची इस्लामी ज़िंदगी पर ज़ोर दिया। उनकी तालिमात में अमल पर बहुत ज़ोर है। वह कहते है कि बे-अमली से इंसान की सारी शख़्शियत ख़तम हो जाती है। अमल से वह अपनी शख़्शियत को कहीं से कहीं पहुँचा देता है।

इसी लिए एक मर्तबा उन्होंने कहा ज़िंदगी को तल्ख़[39] हकीकतों का मर्दों की तरह मुकाबला करो, एक शतरमुर्ख[40] की तरह नहीं, जो शिकारी को देखकर रेत में मुंह छुपा लेता है।

इकबाल की शायरी में खुदी का लफ़ज़ बार बार इस्तेमाल हुआ है। कुछ लोग यह समझे कि खुदी के लफ्ज़  को इकबाल ने ग़रूर के माअनों में इस्तेमाल किया है। लेकिन इकबाल के यहाँ खुदी में ज़रा सी भी ग़रुर की बू-बास नहीं है। उन्होंने तो यह बताया है कि इंसान को चाहिए कि अपने आपको पहचाने और अपनी शख़्शियत की गहराई को महसूस करें। जब कोई शख़्श अपने आपको पहचान लेता है तो निडर और बेबाक हो जाता है। मुश्कलात में इसकी छुपी हुई कुवतें और ज़यादा उभर कर सामने आती है।

इकबाल ने यह महसुस किया कि इंसान न सिर्फ यह कि अशरफुल-मखलुकात[41] है बल्कि इस ज़मीन पर खुदा का नाईब[42] है, इस लिए की ज़िम्मेदारी भी ज़्यादा है। इस ज़िम्मेदारी को पुरा करने के लिए इंसान को अपने आपको तयार करना चाहिए और तयार करने का तरीका वह है कि वह अल्ला की इताअत[43] करे और इसकी इबादत[44] करे और अपनी शख़्शियत में नज़मों-ज़ब्त[45] काईम करे। तब ही वह आला[46] मर्तबा[47] हासिल कर सकता है।

इकबाल की शायरी का गैर मामुली असर पड़ा। एक पुरी नसल के सोचने के तरीका बदल गया। उर्दू और फारसी जानने वाले तो ख़ास तोर पर बहुत मुतासिर हुए। उनकी किताबें घर घर पढ़ी जाने लगी। उन्होंने अपनी शायरी के ज़रिये उन लोगों के सोचने तरीके को बदल दिया। गुलाम कोम के दिल में न सिर्फ आज़ादी के जज़बा पौदा किया बल्कि उनको बताया कि आज़ाद होने के बाद भी अक्सर गुलामी की बू-बास नहीं जाती। अगर हम अपनी इस्लाह ख़ूद नहीं करते। अगर हमें अपनी इज़्जत का ख़ूद अहसास नहीं है तो आज़ादी कोई मायनी नहीं रखती। हमें चाहिए कि अपने आप को बहतर बनाएँ। हमको अल्ला-ताला ने जो कुव्वत और सलाहियत दी है इससे पुरा पुरा फाईदा उठाएँ। अल्लामा इकबाल ने अपनी एक फारसी किताब में एक छोटा सा किस्सा लिखा है। आप भी पढ़े। इससे यर बात आसानी से समझ में आ जाएगी।

किसी चरागा[48] में बहुत सी भेड़े रहती थी। च्योंकि यहाँ बहुत चारा था इस लिए इन भेड़यों की नसल ख़ूब चली-फुली, और इनकी तादाद बहुत बढ़ गई। इत्तफाक की बात है कि पास ही के जंगल में कहीं से कुछ शेर आकर रहने लगे। इन्हें जब भूख लगती तो वह कुछ भेड़ियों का शिकार कर लेते और इनको खा कर अपना पेट भरते थे। भेड़े बहुत परेशान हुए मगर शेर से बचने की कोई तदबीर[49] इनकी समझ में न आई। एक बुढ़ी भेड़ें सब से ज़्यादा अक्कलमंद थी इसकी समझ में एक तरकीब आई। इसने सोचा कि इन भेड़ों को शेर बनाना तो मुमकीन नहीं लेकिन कोई तरकीब करना चाहिये जिससे कि शेर अपनी आदतें छोड़ दे। फिर इनमें और शेरों में फर्क न रहेगा। चनांचा इसने शेरों के कछार शरू किया कि मुझे खुदा ने अपना पैगाम दे कर तुम्हारे पास भेजा है और अगर तुमने मेरी बात न मानी तो तुम तबाअ व बर्बाद हो जाओगे। जो भेड़ियों को खा खा कर जिंदगी गुजारते हैं, इनकी मोत करीब है। अगर हमेशा की जिंदगी हासिल करना चाहते हो तो साग-पात[50] पर गुज़ारा करो और अपने आपको मिटा डालो क्योंकि जन्नत में सिर्फ कम्ज़ोर ही जा सकता है।

इस भेड़ के वअज़[51] का यह असर हुआ कि शेर घास-पुस खाकर गुज़ारा करने लगे और जन्नत के ख़्वाब देखने लगे। आहिस्ता आहिस्ता इनकी हिम्मत बिलकुल जवाब दे गई और इनमें और भेड़ियाँ में कोई फर्क न रहा।

इस किस्से के ज़रिये इकबाल जो कुछ कहना चाहते है बड़ी आसानी से समझ में आ जाती है। इकबाल ने कुरान की तालिमात पर बहुत ज़ोर दिया है। वह कहते हैं कि इस दुनिया में जो कुछ है वह सब इंसान के लिए है।  अगर इंसान बे-अमली की ज़िंदगी गुज़ारे, खुद कुछ न करे तो यह बे-अमली इसके लिए मोत का पैगाम है।

अलामा इकबाल आख़री ज़माने में फारसी में शायरी कहने लगे थे। यह और बात है कि कभीकभी उर्दू में भी कर लेते थे। लेकिन यह हकिकत है कि उनके आख़री ज़माने का ज़्यादा तर कलाम फारसी में है। अलामा इकबाल की ज़िंदगी के आख़री साल बिमारी में गुज़रे। यहाँ तक की 21 एप्रील 1938 को आपका इंतकाल हो गया। इस वक़्त आपकी उमर 60 साल 5 महिने थी। उनके जनाज़े में तक्रिबन पचास हज़ार आदमी शरीक हुए। हिंदुस्तान के शहरों और कस्बों में जगह जगह महिनों उनकी मोत के सोग[52] में जल्से[53] हुए।
बच्चों के इकबाल इससे पहले भी छप चुकी है लेकिन यह एडीशन ख़ास तोर पर इज़ाफे के साथ शाई किया जा रहा है। इसमें इकबाल की वह नज़में भी है जो उनके मजमुओ में नही है और पहली बार बच्चों के सामने पेश की जा रही है।

जनाब फकीर सय्यद वहीदुदीन साहब ने अलामा इकबाल के भतीजे शेख़ अजाज़ अहम्मद की ब्याज़ से अपनी  किताब रोज़गार फकीर की दुसरी जिल्द में यह नज़में नकल की है जिनके किसी वह से अलामा इकबाल ने अपनी मतबुआत[54] में नहीं शामिल किया था। दर असल यह उनकी बुलंदी ज़ोक[55] नजर की बात है वरना कोई वजह नही है कि जहां तक हो सके नेकी करो, चांद और शायर’, महनत’, बच्चों  केलिए चंद नसिहतें घोड़ों की मजलिस और शहद की मक्खी बच्चों के अदब में नुमायां हेशियत हासिल न करे।

इसके अलावा उनकी  चंद लज़मों में भी बहुत से शायर नहीं मिल्तें जो अब शाय किया जा रहा है। जैसे बच्चे की दुआ मज़ीद 4 इशआर- इक पहाड़ और गिल्हरी मज़ीद 12 इसार इक गाय और बकरी मज़ीद 12 इशआर- मा का ख़्वाब मज़ीद 9 इशआर इक मकड़ा और मक्खी मज़ीद 8 इशआर और हमदर्दी मज़ीद (8) इशआर - मुझे उम्मीद है कि बच्चों इन इशआर को भी शोक से पढ़ेंगे। अलामा इकबाल की ज़बान से निकला हुआ हर लफ़्ज़ हमारे लिए तब्ब्रक[56] है।

मैं इस मजमुआ की इशाअत केलिए अपने अज़ीज़ दोस्त शाहिद अली खाँ साहब का खास तोर पर मम्नून[57] हूँ वरना गरीब अलोतनी[58] के ज़माने में मेरे लिए इसे छपवाना बहुत मुश्किल होता। मोरिशियश के कयाम[59] के दोरान मैंने जहां सरकारी किये वहाँ सुद साला जशन के सिलसिले में मुझे कलामे इकबाल को दो बारा पढ़ने का मोका मिला और किताबी शकल में पेश करुंगा ताकि हमारे नौजवान और नए पढ़ने वाले इकबाल को अच्छी तरह समझ सके और इन्हें इकबाल के कलाम को समझने मै दिक्कत न पेश आए।
9 नवेम्बर 1977, इतहर परवेज़, महात्मा गांधी इंस्टिट्युट, मोरिशियश, बहर हिंद



[1] आलीमः Scholar; learned man, adj. wise sage عالم   
[2] अलामाः adj. learned, wiseعلاما     
[3] आबा-ओ-अजदादः Ancestor, forefathers آبا و اجداد      
[4] तालिबे-इल्मः  studentطالب علم        
[5] महज़ः adj. mere; absolute; pure, adv. merelyمحض     
[6] शुराः pl. poetsشعرا       
[7] अशाअरः plural of ‘शेअर’; verse, poetry   اشعار       
[8] इस्लाहः correction, cure, rectificationاصلاح      
[9] एज़ाज़ः honour, respectاعزاز        
[10] वज़िफाः pension, salaryوظیفہ      
[11] लियाकतः worth, abilityلیآقت     
[12] स्लाहयतःvirtue, purity, holinessصلآحیت        
[13] एज़ाज़तः plural of ‘एज़ाज़’ above اعزازت     
[14] तकररः appointmentتقرر       
[15] अंजुमनःassociation, institution, clubانجمن      
[16] हिमायतः support, protect, patroniseحمایت      
[17] नालाः gutterنالہ   
[18] यतीमःorphansیتیم    
[19] हुब्बो-वतनीः patriotismحبّ ا لوطنی                           
[20] जज़बाः passion, desire, feelingجزبہ      
[21] इतेहादः union, concord, amity, chance         اتحاد                          
[22] इत्तफाकः union, concord, chance, opportunity                    اتفاق  
[23] मकालेःمقالے                                                                              
[24] इल्हियातः pl. heavenly bodies        الہات                                       
[25] अरतकाःارتقا                                                                              
[26] मुमालिकः Countries, statesممالک                                             
[27] सनअतीःadj. industrialصنعتی                                                    
[28] सरमायादारः capitalistسرمایہ دار                                                
[29] माअनीः significanceمعنی                                                           
[30] वसाअतः extent, spaceوسعت                                                       
[31] अकीदाः faith, religious beliefعقیدہ                                               
[32] माद्दीः material, substancمآدّی                                                   
[33] तवाज़नः balance                                   توازن                        


[34] अक्वामः communities, nationsاقوام                                        
[35] दयारः countryدیار                                                                   
[36] सादाःblank, simple, fool, plainسادلدہ                                       
[37] बनी-नू-ए-इंसान: sons, issues of kind of mankindبنی نوع انسان 
[38] निजातः salvation, release, riddance, freedomنجات                 
[39] तल्ख़ः bitter, pungentتلخ                                                       
[40] शतरमुर्घः ostrichشترمرغ                                                          
[41] अशर्फुल-मखलुकात mankindاشرف المخلوقات                              
[42] नाईबःassistant, deputy     نا‏ئب                                                      
[43] इताअतः to obeyاطاعت                                                            
[44] इबादतः worship, prayعبادت                                                    
[45] नज़मो-ज़ब्त: discipline, order, controlنظم و ضبط                   
[46] आलाः superior, higherاعلی                                                     
[47] मर्तबाःdegree, dignity, rank مرتبہ                                            
[48] चरागाः pasture, meadowچراگاہ                                               
[49] तदबीरः plan, proposal, remedy  تدبیر                                       
[50] साग-पातःGreens, vegetablesساگ پات                                    
[51] वअज़ः preaching, admonitionوعظ                                         
[52] सोगः lamentation, affliction, mourningسوگ                          
[53] जलसेः meeting, assembly, feast    جلسے                                
[54] मतबुआतः publications مطبوعات                                            
[55] बलंदी ज़ोकः extreme fondبلندی ذوق                                        
[56] तबरुकः sacredتبّرک                                                                
[57] मम्नूनः thankful, obligedممنون                                              
[58] अलोतनीःالوطنی                                                                       
[59] कयाम stay, halt    قیام                                                             


[34] अक्वामः communities, nationsاقوام                                        
[35] दयारः countryدیار                                                                   
[36] सादाःblank, simple, fool, plainسادلدہ                                       

[37] बनी-नू-ए-इंसान: sons, issues of kind of mankindبنی نوع انسان